सुभाष नीरव





शुक्र है…






शुक्र है-

निरन्तर बढ़ रहे इस विषाक्त वातावरण में

बची हुई है, थोड़ी-सी प्राणवायु।



शुक्र है-

कागज और प्लास्टिक की संस्कृति में

बचा रखी है फूलों ने अपनी सुगन्धि

पेड़ों ने नहीं छोड़ी अपनी ज़मीन

नहीं छोड़ा अपना धर्म

स्वार्थ में डूबी इस दुनिया में।



बेईमान और भ्रष्ट लोगों की भीड़ में

शुक्र है-

बचा हुआ है थोड़ा-सा ईमान

थोड़ी-सी सच्चाई

थोड़ी-सी नेकदिली।



शुक्र और राहत की बात है

इस युध्दप्रेमी और तानाशाही समय में

बची हुई है थोड़ी-सी शांति

बचा हुआ है थोड़ा-सा प्रेम

और

अंधेरों की भयंकर साजिशों के बावजूद

प्रकाश अभी जिन्दा है।



एक बेहतर दुनिया के लिए

थोड़ी-सी बची इन अच्छी चीजों को

बचाना है हमें-तुम्हें मिलकर

भले ही हम हैं थोड़े–से लोग !






बेहतर दुनिया का सपना देखते लोग






बहुत बड़ी गिनती में हैं ऐसे लोग इस दुनिया में

जो चढ़ते सूरज को करते हैं नमस्कार

जुटाते हैं सुख-सुविधाएं और पाते हैं पुरस्कार



बहुत बड़ी गिनती में हैं ऐसे लोग

जो देख कर हवा का रुख चलते हैं

जिधर बहे पानी, उधर ही बहते हैं



बहुत अधिक गिनती में हैं ऐसे लोग

जो कष्टों-संघर्षों से कतराते हैं

करके समझौते बहुत कुछ पाते हैं



कम नहीं है ऐसे लोगों की गिनती

जो पाने को प्रवेश दरबारों में

अपनी रीढ़ तक गिरवी रख देते हैं



रीढ़हीन लोगों की इस बहुत बड़ी दुनिया में

बहुत कम गिनती में हैं ऐसे लोग जो

धारा के विरुद्ध चलते हैं

कष्टों-संघर्षों से जूझते हैं

समझौतों को नकारते हैं

अपना सूरज खुद उगाते हैं



भले ही कम हैं

पर हैं अभी भी ऐसे लोग

जो बेहतर दुनिया का सपना देखते हैं

और बचाये रखते हैं अपनी रीढ़

रीढ़हीन लोगों की भीड़ में ।