অভি সমাদ্দার
লেখক / সংকলক : iPatrika Crawler

অভি সমাদ্দারের অনুবাদ কবিতা
হিন্দী কবিতা পরিসরে আমার খুব প্রিয় একজন কবি, কবি বিনোদ কুমার শুক্ল। কবি বিনোদ কুমার শুক্লের নতুন করে পরিচয় দেওয়া বাতুলতা মাত্র।তবুও ছোট করে তাঁর একটি পরিচিত রইল।
কবি বিনোদ কুমার শুক্ল-এর জন্ম ১ লা জানুয়ারি, ১৯৩৭। রাজনাদগাঁব। মধ্যপ্রদেশ। তাঁর প্রথম কাব্যগ্রন্থ প্রকাশিত হয় ১৯৭১ নাম- 'লগভগ্ জয়হিন্দ'। যা কবি অশোক বাজপেয়ীর 'পেহ্চান' সিরিজের অন্তর্গত একটি প্রকাশনা। ওঁনার দ্বিতীয় কাব্যগ্রন্থ 'ও আদমি চলা গ্যায়া ন্যায়া গরম কোট পেহিনকর বিচার কি তরহ' প্রকাশিত হয় 'সম্ভবনা' প্রকাশন থেকে এবং ওই একই প্রকাশন হাউস থেকে প্রকাশিত হয় তার প্রথম বহুল আলোচিত উপন্যাস 'নৌকর কে কমীজ' যা ১৯৭৯ সালে। ১৯৮৮ সালে ওনার গল্পসংগ্রহ 'পের পর কামরা'। কর্মজীবনে তিনি ইন্দিরা গান্ধী কৃষি বিশ্ববিদ্যালয়ের অধ্যাপক ছিলেন।
১৯৯৬ সালে তিনি অবসর গ্রহন করেন। ১৯৯৯ সালে তাঁর রচিত উপন্যাস 'দীবার মে এক খিড়কি রহতি থি' জন্য তিনি সাহিত্য একাডেমি পুরস্কার পান।
তবে যেকারণে তিনি আমাকে আকর্ষণ করেন, তা সামান্য দু'চার কথায় বলাই যায়। এবং সেটি হল কবিতা নির্মাণে তাঁর অনন্য ভাষা প্রকরণ।
এক আপাত সামান্য বিষয়কেও তিনি, তাঁর যাদুকরী ভাষার গুণে স্বর্গীয় এক মূর্চ্ছনায় ঝংকৃত করতে পারেন অবলীলায়। আমার মতো সামান্য এক পাঠক। সাহস করে, তাঁর দু'তিনটি কবিতা কোনো একসময় অনুবাদ করে ফেলেছিলাম। মুগ্ধতা বশে।
সেখান থেকেই 'দেহলিজে' তুলে দিলাম কবিতাগুলি। ভুল ত্রুটি যদি কিছু থাকে, তা একান্ত আমার। বিপরীতে এসব কাজ কারো যদি ভালো লাগে। কবি বিষয়ে কেউ যদি আগ্রহী হয়। সেটুকুই লাভ। নীচে মূল হিন্দী ও আমার করা বাংলা অনুবাদ। দুটোই রইল।
উপন্যাসে রয়ে যাওয়া কবিতা
অগুনতির থেকে বাইরে আসা একটি তারা।
একটি তারা অগুনতির থেকে কীভাবে বাইরে এল?
অগুণতির থেকে আলাদা
একলা এক
প্রথম হয়ে ছিল কিছুক্ষণ।
হাওয়ার ঝাপটা যখন এল
সেও ছিল অগুনতি ওই ঝাপটার
প্রথম ঝাপটা কিছুক্ষণ।
অগুনতির থেকে বাইরে একটি ঢেউও
প্রথম, শুধু কিছু সময়।
অগুনতির একলা
অগুনতির একা-দের অগুনতি।
অগুনতির থেকে একলা এক—
সঙ্গী জীবনভর।
এই দিনগুলি
এই দিন বয়সের বৃত্তি।
এক সকাল হওয়ার বেতন পাই
আর সন্ধ্যে হয়ে খরচ হয়
আগামী দিন কোথায় কী
ওই কোথায় কী দিনেরও সকাল হল
ঋণ ঋণের সকাল।
বন্ধু, দিনের এই ঋণের বোঝা
আমি অন্য মানুষের জীবন ভালোবাসে চুকিয়ে দেব।
কিন্তু আমাদের সকলেরই আজকাল দিন দিন লুঠ আর হত্যা দেখে
এতো ক্ষুণ্নতা গ্রাস করে যে
আমি কোনো একটি দিন যেমন উনিশ ফেব্রুয়ারি দিনটি
কবিতার রোজনামচায় তুলে রাখি।
চুপ
বলার কথায় যেন কম করে বলি
যদি বলি, বেশি যেন না বলি
এতো কম করে বলি যে কোনোদিন
একটি কথাই বারবার বলি
যেমন কোকিলের ঘন ঘন কুহু
তারপর চুপ।
আমার এই অধিকতর চুপ সবাই জানুক
যা বলা হয় নি, সবকিছু বলে ফেলার এক চুপ।
পাহাড়, আকাশ, সূর্য, চন্দ্রের প্রতিস্পর্ধায়
একটি টিম টিম করা
আমারও শ্বাশত
ক্ষুদ্রাতি এক চুপ।
অন্যায়ের ভেতর আঘাত হানার ইচ্ছেয়
আমার এই ছোট্ট চুপ-
যেন বন্দুকের ট্রিগার টেপার
আগের এক চুপ।
যে বন্দুক কখনও চলেনি
সেই শান্তকল্যাণের
আমার আশান্বিত আলোর এক চুপ।
বটের একান্ত ছায়ার তলে
যত্নে রাখা
জ্বলন্ত প্রদীপের চুপ
ভিড়ের ভেতরে
পদপিষ্ট থেকে বাঁচা এই আমার চুপ,
আত্মীয় মিছিলে আমি যে বলবো
আমার দেখেশুনে বলার সেই এক চুপ।
মূল কবিতা
विनोद कुमार शुक्ल
उपन्यास में पहले एक कविता रहती थी
अनगिन से निकलकर एक तारा था।
एक तारा अनगिन से बाहर कैसे निकला था?
अनगिन से अलग होकर
अकेला एक
पहला था कुछ देर।
हवा का झोंका जो आया था
वह भी था अनगिन हवा के झोंकों का
पहला झोंका कुछ देर।
अनगिन से निकलकर एक लहर भी
पहली, बस कुछ पल।
अनगिन का अकेला
अनगिन अकेले अनगिन।
अनगिन से अकेली एक-
संगिनी जीवन भर।
यह दिन उम्र की रोज़ी है
यह दिन उम्र की रोज़ी है
एक सुभ हुई की तन्ख़ा मिली
और शाम हुई में खर्च हुई
अगले दिन का क्या पता
इस क्या पता दिन की भी सुबह हुई
यह उधारी हुई।
मित्रो, दिनों के उधार को
मैं दूसरों के जीवन से बहुत प्रेम कर चुक दूंगा।
परंतु हम सभी के आजकल के दिनों की यह लूट और हत्या की रपट है
कि मैं किसी भी दिन को जैसे उन्नीस फ़रवरी के दिन को
कविता के रोजनामचे में दर्ज़ कराता हूँ।
बोलने में कम से कम बोलूँ
बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप ।
मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें
जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप ।
पहाड़, आकाश, सूर्य, चंद्रमा के बरक्स
एक छोटा सा टिम-टिमाता
मेरा भी शाश्वत छोटा-सा चुप ।
ग़लत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप-
चलने के पहले
एक बंदूक का चुप ।
और बंदूक जो कभी नहीं चली
इतनी शांति का
हमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप ।
बरगद के विशाल एकांत के नीचे
सम्हाल कर रखा हुआ
जलते दिये का चुप ।
भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप,
अपनों के जुलूस में बोलूँ
कि बोलने को सम्हालकर रखूँ का चुप।