डां शशि शर्मा
লেখক / সংকলক : iPatrika Crawler

जमात
मेरे शहर में रोज़ उग रही है
आदमियों की फ़सल
रेलवे स्टेशन,बस अड्डे या
गली-कूंचों में
फुटपाथ पर, रेहड़ी पर
दुकानों के पट्टों के नीचे
बुलंदी की ओर बढ़ती
इमारतों की नींव से सटे
बदबूदार नालों के किनारे-किनारे
लचकती लकड़ियों के सहारे टिकीं
सैंकड़ों-हजारों झुग्गियों में दुबकी
आदमियों की फ़सल झांक रही है
उस सूरज को जो
इठलाते बादलों के बीच से
कभी -कभी झलक जाता है
और गढ्डों में धंसी बुझी आंखें
चुंधिया जाती हैं।
चुंधियाई आंखें
बड़ी हसरत से देखतीं हैं
संसद महल
उसके बुर्ज से जारी फ़रमानों पर
कट-कट जाती है फ़सल
और होती जाती है दर्ज़
ऐतिहासिक दस्तावेजों में ।
फ़सल बढ़ती है आदमियों की
दौड़ती है मेरे शहर की ओर ढूंढ़ती है शब्दों को
उनकेे अर्थों को
जिनके संदर्भ रोटी और छत से टूटकर
कुर्सी से जुड़ गए हैं
कुर्सी वालों की एक जमात होती है
नारों से बेंधती
त़मगों से कसती
एक शिकारी जमात
फ़सल आदमियों की
बांण बिंधी हिरणी सी टुकुर-टुकुर
देखती भर रहती है
क्योंकि जमात कुर्सियों की होती है
टांगों की नहीं।
मॉं
क्यूँ होता है ऐसा कि
मॉं हमेशा पैडस्ट्रल पर ही
दिखाई देती है
मानकर चलते हैं
मॉं झूठ नही बोलती
मॉं कुछ गलत नहीं करती
मॉं कुछ गलत नहीं सोचती
मॉं लिपी -पुती
धुली धुलाई मूर्ति है
कहीं कुछ लीक से
इधर -उधर हो जाए तो
अनायास दर्पण में
कुछ चटकने लगता है
मॉं कभी औरत नहीं होती
उसमें सिर्फ साँसें होती हैं
धड़कन नहीं -
उसके चित्रपटल पर
कर्त्तव्यों की रेखाओं के बीच
आकांक्षाओं के रंगों के लिए
कोई जगह नहीं होती
सफ़ेद कागज सा उसका चित्र
जिसमे भरे होते हैं
हमारी उम्मीदो के रंग
जिन्हें हम जब चाहे
बना मिटा सकते हैं -
सदियों से उस पैडस्ट्रल पर
बैठी - बैठी मॉं थक गई होगी
जरूर उसे भी पैरों के नीचे
नर्म सौंधी मिट्टी की
चाहत कचोटती होगी
चलो उतार लेते हैं उसे जमीं पर
दौड़ने के लिए
महकने के लिए
बहकने के लिए
कभी कुछ देर
सिर्फ़ औरत की
ज़िन्दगी जीने के लिए .
जन्मदिन
हरे -भरे पेड़ से
एक -एक कर झड़ते
उम्र के पीले पत्तों को समेटकर
सहेज लो पोटली में
मौसम के बदलते ही
ये वीरान पत्ते
यादों के लिबास में
विरासत बन देंगे
जीने का एक और मकसद
ताकि तुम रोज़ पोटली खोल
झड़े पत्तों को फिर से
टहनियों पर सजा देख सको
और फिर से एक और
लम्हा जी सको।
होली
इस बार बहुत भयभीत
और डरी-सहमी है
होली
गली-गलियारो में हुड़दंग मचाती हठीली
जा छिपी है दरवाजों के पीछे
झिर्रियों से बार-बार
झांकती है बाहर
कि कहीं कोई दिखाई दे
और बालकनी में बिसुरती पिचकारी
खिलखिला उठे
उधर गुलालभरी तश्तरी
पसरी पड़ी है मेज़ पर
जानती है कोई नहीं उठाएगा
और वह अगली होली तक
किसी डिब्बे में
इतंजार करती रहेगी
इस बार चूल्हे भी
गुंजियों-मठरियों से महरूम हैं
कांजी ने घड़े की शक्ल तक
नही देखी
गुब्बारें पैकेट में रूठें पडें है
जिन्दगी की सतरंगी चूनर
जा छिपी है किसी
अभिशिप्त जंगल में
और शेष रह गईं है
सफेद चादर में लिपटी
खुशियों की पोटली।